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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह (२) विनय शुद्धः-प्रत्याख्यान के समय में मन, वचन, काया
का गोपन कर अन्यूनाधिक अर्थात् पूर्ण वन्दना की विशुद्धि
रखना विनय शुद्ध प्रत्याख्यान है। (३) अनुभाषण शुद्धः-गुरु को वन्दना करके उनके सामने
खड़े हो, हाथ जोड़ कर प्रत्याख्यान करते हुए व्यक्ति का, गुरु के वचनों को धीमे शब्दों में अक्षर, पद, व्यञ्जन की अपेक्षा शुद्ध उच्चारण करते हुए दोहराना अनुभाषण
(परिभाषण) शुद्ध है। (४) अनुपालना शुद्धः--अटवी, दुष्काल, तथा ज्वरादि महा
रोग होने पर भी प्रत्याख्यान को भङ्ग न करते हुए उसका
पालन करना अनुपालना शुद्ध है। (५) भाव शुद्धः-राग, द्वेष, ऐहिक प्रशंसा तथा क्रोधादि परिणाम से प्रत्याख्यान को दूषित न करना भावशुद्ध है।
उक्त प्रत्याख्यान शुद्धि के सिवा ज्ञान शुद्ध भी छठा प्रकार गिना गया है। ज्ञान शुद्ध का स्वरूप यह है:
जिनकल्प आदि में मूल गुण उत्तर गुण विषयक जो प्रत्याख्यान जिस काल में करना चाहिये उसे जानना ज्ञान शुद्ध है। पर ज्ञान शुद्ध का समावेश श्रद्धानशुद्ध में हो जाता है क्योंकि श्रद्धान भी ज्ञान विशेष ही है।
(ठाणांग ५ उद्देशा ३ सूत्र ४६६) (हरिभद्रीयावश्यक प्रत्याख्यानाध्ययन पृष्ठ ८४७) २२१-पाँच प्रतिक्रमण
प्रति अर्थात् प्रतिकूल और क्रमण अर्थात् गमन ।