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[ 7 ] सन्त-मुनिराजों से सुन कर एवं धार्मिक ग्रन्थों के अनुशीलन के पश्चात् संग्रहीत हुए थे और विशेषतः उनका अाधार प्रसिद्ध स्थानाङ्ग सूत्र और ममवायाङ्ग सूत्र थे। उक्त सूत्र एवं अन्य ग्रन्थों की शैली पर रचित होने पर भी हम उस संग्रह को सर्वाङ्ग पूर्ण नहीं कह सकते । वे हमारे प्रथम प्रयास थे और उनमें अनुभव की इतनी गहराई न थी । परन्तु उस समय के समाज को देखते हुए वे समय से पूर्व ही कहे जायँ तो कोई अत्युक्ति न होगी। आज समाज के ज्ञान का स्तर उस समय की अपेक्षा ऊँचा हो गया है। इसी लिए प्रस्तुत ग्रन्थ शैली आदि की दृष्टि से 'छत्तीस बोल मंग्रह' का अनुगामी होते हुए भी कुछ विशेषताओं से सम्बद्ध है । यह अन्तर कुछ तो बढ़े हुए अनुभव के आधार पर है, कुछ वर्तमान समाज की बढ़ती हुई ज्ञान पिपासा को तदनुरूप तृप्त करने के लिए और कुछ साधनों की सुविधा पर है जो इस बार मौभाग्यवश पहले से अधिक प्राप्त हो सकी है।
____ इस बार जितने भी बोल मंग्रहोत हुए हैं । प्रायः सभी आगम एवं सिद्धान्त ग्रन्थों के आधार पर लिखे गए हैं।
बोलों के आधारभूत ग्रन्थों का नामोल्लेख भी यथास्थान कर दिया गया है । ताकि, अन्वेपणप्रिय पाठकों को संदर्भ के लिए इधर उधर खोजने में विशेष परिश्रम न करना पड़े। बोलों के साथ ही आवश्यक व्याख्या और विवेचन भी जोड़ दिया गया है। इस विस्तार को हमने इस लिए उपयोगी और महत्वपूर्ण समझा है कि पुस्तक सार्वजनिक
और विशेष उपयोगी हो मके । बोलों के संग्रह, व्याख्यान और विवेचन में मध्यस्थ दृष्टि से काम लिया गया है। माम्प्रदायिकता को छोड़ कर शास्त्रीय प्रमाणों पर ही निर्भर रहने की भरसक कोशिश की गई है। इसी लिए ऐसे बोलों और विवेचनों को स्थान नहीं दिया है जो साम्प्रदायिक और एक देशीय हैं । आशा है प्रस्तुत ग्रन्थ का दृष्टिकोण और विवेचन शैली उदार पाठकों को समयोपयोगी और उचित प्रतीत होंगे।
प्रत्येक विषय पर दिए गप प्राचीन शास्त्रों के प्रमाण जैनदर्शन का अनुसन्धान करने वाले तथा दूसरे उच्च कक्षा के विद्यार्थियों के लिए