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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला अप्रत्याख्यानावरण माया--जैसे मेंढे का टेढ़ा सींग अनेक उपाय
करने पर बड़ी मुश्किल से सीधा होता है । उसी प्रकार जो माया अत्यन्त परिश्रम से दूर की जा सके । वह अप्रत्या
ख्यानावरण माया है। प्रत्याख्यानावरण माया-जैसे चलने हुए बैल के मूत्र की टेढी
लकीर सूख जाने पर पवनादि से मिट जाती है । उसी प्रकार जो माया सरलता पूर्वक दूर हो सके, वह प्रन्याख्यानावरण
माया है। मंज्वलन माया-छोले जाते हुए बाँस के छिलके का टेढ़ापन
विना प्रयत्न के सहज ही मिट जाता है। उसी प्रकार जो माया विना परिश्रम के शीघ्र ही अपने आप दूर हो जाय । वह संज्वलन माया है।
( पन्नवणा पद १४) (ठाणांग ४ सूत्र २६३)
(कर्म ग्रन्थ प्रथम भाग) १६२:-लोभ के चार भेद और उन की उपमाएं:
(१) अनन्तानुबन्धी लोभ (२) अप्रत्याख्यानावरण लोभ,
(३) प्रत्याख्यानावरण लोभ (४) संज्वलन लोभ । अनन्तानुबन्धी लोभ-जैसे किरमची रङ्ग किसी भी उपाय से
नहीं छूटता, उसी प्रकार जो लोभ किसी भी उपाय से दूर
न हो। वह अनन्तानुबन्धी लोभ है। अप्रत्याख्यानावरण लोभः-जैसे गाड़ी के पहिए का कीटा
(खञ्जन ) परिश्रम करने पर अतिकष्ट पूर्वक छूटता है।