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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह १२३ उसी प्रकार जो लोभ अति परिश्रम से कष्ट पूर्वक दूर किया
जा सके । वह अप्रत्याख्यानावरण लोभ है। प्रत्याख्यानावरण लोभः-जैसे दीपक का काजल साधारण
परिश्रम से छूट जाता है। उसी प्रकार जो लोभ कुछ परिश्रम
से दूर हो । वह प्रत्याख्यानावरण लोभ है। मंज्वलन लोभः-जैसे हल्दी का रंग महज ही छूट जाता है।
उसी प्रकार जो लोभ आसानी से स्वयं दूर हो जाय वह संज्वलन लोभ है।
(ठाणांग ४ सूत्र २१३)
(पन्नवणा पद १४)
( कर्म ग्रन्थ प्रथम भाग) १६३--किस गति में किम कषाय की अधिकता होती है:
(१) नरक गति में क्रोध की अधिकता होती है। (१) तिर्यश्च गति में माया अधिक होती है। (३) मनुष्य गति में मान अधिक होता है। (४) देव गति में लोभ की अधिकता होती है।
(पन्नवणा पद १४) १६४-क्रोध के चार प्रकार:
(१) आभोग निवर्तित (२) अनाभोग निवर्तित ।
(३) उपशान्त (४) अनुपशान्त । आभोग निवर्तितः-पुष्ट कारण होने पर यह सोच कर कि ऐमा किये विना इसे शिक्षा नहीं मिलेगी । जो क्रोध किया जाता है। वह आभोग निवर्तित क्रोध है।