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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह १२८ १६०-मान के चार भेद और उनकी उपमाएं । (१) अनन्तानुबन्धी मान (२) अप्रत्याख्यानावरण मान । (३) प्रत्याख्यानावरण मान (४) संज्वलन मान । अनन्तानुबन्धी मान--जैसे पत्थर का खम्भा अनेक उपाय करने पर भी नहीं नमता । उमी प्रकार जो मान किसी भी उपाय से दूर न किया जा सके वह अनन्तानुबन्धी मान है । अप्रत्याख्यानावरण मान-जैसे हड्डी अनेक उपायों से नमती है। उमी प्रकार जो मान अनेक उपायों और अति परिश्रम से दूर किया जा सके । वह प्रत्याग्व्यानायरण मान है। प्रत्याख्यानावरण मान-जैसे काष्ठ, तेल वगैरह की मालिश से नम जाता है। उसी प्रकार जो मान थोड़े उपायों से नमाया जा सके, वह प्रन्याग्व्यानावरण मान है । संज्वलन मान--जसे वेत विना मेहनत के महज ही नम जाती है। उमी प्रकार जो मान महज ही छूट जाता है वह मंज्वलन मान है। (पन्नवणा पद १४) (ठाणांग ४ सूत्र २१३) (कर्मग्रन्थ प्रथम भाग) १६१-माया के चार भेद और उन की उपमाएं: (१) अनन्तानुवन्धी माया (२) अप्रन्याख्यानावरण माया । (३) प्रत्याख्यानावरण माया। (४) मंज्वलन माया। अनन्तानुबन्धी माया-जसे बांस की कठिन जड़ का टेढ़ापन किसी भी उपाय से दूर नहीं किया जा सकता । उमी प्रकार जो माया किमी भी प्रकार दूर न हो, अर्थात् मग्लता रूप में परिणत न हो। वह अनन्तानुबन्धी माया है।
SR No.010508
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1940
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size12 MB
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