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श्री संठिया जैन ग्रन्थमाता मिथ्या दृष्टियों का नवप्रवेयक तक में उत्पन्न होना शास्त्र में वर्णित है।
(पन्नवणा पद १४) (ठाणांग४सूत्र २४६)
(कर्म ग्रन्थ प्रथम भाग) १५६-क्रोध के चार भेद और उनकी उपमाएं ।
(१) अनन्तानुबन्धी क्रोध, (२) अप्रत्याग्न्यानावरण क्रोध ।
(३) प्रत्यारन्यानावरण क्रोध (४) मंज्वलन क्रोध । अनन्तानुबन्धी क्रोध-पर्वत के फटने पर जो दगर होती है ।
उमका मिलना कठिन है । उसी प्रकार जो क्रोध किमी उपाय
से भी शान्त नहीं होता । वह अनन्तानुबन्धी क्रोध है। अप्रत्याख्यानावरण क्रोध-सूखे तालाब आदि में मिट्टी के फट
जाने पर दगर हो जाती है । जब वर्षा होती है । तब वह फिर मिल जाती है । उसी प्रकार जो क्रोध विशेष परिश्रम
से शान्त होता है । वह अप्रत्याख्यानवरण क्रोध है । प्रत्याख्यानावरण क्रोध बालू में लकीर खींचने पर कुछ समय में
हवा से वह लकीर वापिस भर जाती है । उसी प्रकार जो क्रोध
कुछ उपाय से शान्त हो। वह प्रत्याख्यानावरण क्रोध है। संज्वलन क्रोध-पानी में खींची हुई लकीर जैसे खिंचने के साथ
ही मिट जाती है । उसी प्रकार किसी कारण से उदय में आया हुआ जो क्रोध शीघ्र ही शान्त हो जावे । उसे संज्वलन क्रोध कहते हैं।
(पन्नवणा पद १४) (गणांग ४ सूत्र २४६ से ३३१)
( कर्मग्रन्थ प्रथम भाग)