SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 186
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२० श्री संठिया जैन ग्रन्थमाता मिथ्या दृष्टियों का नवप्रवेयक तक में उत्पन्न होना शास्त्र में वर्णित है। (पन्नवणा पद १४) (ठाणांग४सूत्र २४६) (कर्म ग्रन्थ प्रथम भाग) १५६-क्रोध के चार भेद और उनकी उपमाएं । (१) अनन्तानुबन्धी क्रोध, (२) अप्रत्याग्न्यानावरण क्रोध । (३) प्रत्यारन्यानावरण क्रोध (४) मंज्वलन क्रोध । अनन्तानुबन्धी क्रोध-पर्वत के फटने पर जो दगर होती है । उमका मिलना कठिन है । उसी प्रकार जो क्रोध किमी उपाय से भी शान्त नहीं होता । वह अनन्तानुबन्धी क्रोध है। अप्रत्याख्यानावरण क्रोध-सूखे तालाब आदि में मिट्टी के फट जाने पर दगर हो जाती है । जब वर्षा होती है । तब वह फिर मिल जाती है । उसी प्रकार जो क्रोध विशेष परिश्रम से शान्त होता है । वह अप्रत्याख्यानवरण क्रोध है । प्रत्याख्यानावरण क्रोध बालू में लकीर खींचने पर कुछ समय में हवा से वह लकीर वापिस भर जाती है । उसी प्रकार जो क्रोध कुछ उपाय से शान्त हो। वह प्रत्याख्यानावरण क्रोध है। संज्वलन क्रोध-पानी में खींची हुई लकीर जैसे खिंचने के साथ ही मिट जाती है । उसी प्रकार किसी कारण से उदय में आया हुआ जो क्रोध शीघ्र ही शान्त हो जावे । उसे संज्वलन क्रोध कहते हैं। (पन्नवणा पद १४) (गणांग ४ सूत्र २४६ से ३३१) ( कर्मग्रन्थ प्रथम भाग)
SR No.010508
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1940
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy