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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह २६५ चार व्याधि
(१) वात की व्याधि । (२) पित्त की व्याधि । (३) कफ की व्याधि। (४) सन्निपातज व्याधि ।
(ठाणांग ४ सूत्र ३४३) २६६-चार पुद्गल परिणामः
पुद्गल का परिणाम अर्थात् एक अवस्था से दूसरी अवस्था में जाना चार प्रकार से होता है । (१) वर्ण परिणाम । (२) गन्ध परिणाम। (३) रस परिणाम। (४) स्पर्श परिणाम।
(ठाणांग ४ सूत्र २६५) १६७-चार प्रकार से लोक की व्यवस्था है:(१) आकाश पर घनवात, तनुवात, रूपवात (वायु ) रहा
हुआ है। (२) वायु पर घनोदधि रहा हुआ है। (३) घनोदधि पर पृथ्वी रही हुई है। (४) पृथ्वी पर त्रस और स्थावर प्राणी रहे हुए हैं।
(ठाणांग ४ सूत्र २८६) २६८-चार कारणों से जीव और पुद्गल लोक के बाहर जाने
में असमर्थ हैं:(१) गति के अभाव से (२) निरुपग्रह होने से ।