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श्री जैन सिद्धान्न बोल संग्रह __ १४६ क्रिया के एक अङ्गका आश्रय लेने से वे सत्यमार्ग से परे हैं।
(सूयगडांग प्रथम श्रुतस्कन्ध अध्ययन १२ टीका) १९२-चादी चारः
(१) आत्मवादी (२) लोकवादी ।
(३) कर्मवादी (४) क्रियावादी । (१) आत्म वादी:-जो नरक, निर्यश्च, मनुष्य, देवगति आदि
भाव दिशाओं तथा पूर्व, पश्चिम आदि द्रव्य दिशाओं में आने जाने वाले अक्षणिक अमन आदि स्वरूप वाले आत्मा को मानता है, वह आत्मवादी है । और आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करने वाला है।
जो उक्त स्वरूप वाले आत्मा को नहीं मानने वे अनात्मवादी हैं । सर्व व्यापी, एकान्त नित्य या क्षणिक आत्मा को मानने वाले भी अनात्मवादी ही हैं। क्योंकि सर्व व्यापी, नित्य या क्षणिक आत्मा मानने पर उसका
पुनर्जन्म सम्भव नहीं है। (२) लोकवादी:-आत्मवादी ही वास्तव में लोकवादी है । लोक
अर्थात् प्राणीगण को मानने वाला लोकवादी है । अथवा विशिष्ट आकाश खण्ड जहाँ जीवों का गमनागमन संभव है। ऐसे लोक को मानने वाला लोकवादी है । लोकवादी अनेक आत्माओं का अस्तित्व स्वीकार करता है क्योंकि आत्माद्वैत के एकात्म-वाद के साथ लोक का स्वरूप और