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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला क्षयोपशम प्रत्यय अवविज्ञान कहते हैं । यही ज्ञान गुण प्रत्यय या लब्धि प्रत्यय भी कहा जाता है।
(ठाणांग २ उद्देशा १ सूत्र ७१) १४-पनःपर्यय ज्ञान-इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना
द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा पूर्वक जो ज्ञान मंज्ञी जीवों के मन में रहे हुए भावों को जानता है उसे मनःपर्यय
ज्ञान कहते हैं। मनःपर्यय ज्ञान के दो भेदः (१) ऋजुमति (२) विपुलमति । अनुमति मनःपर्यय ज्ञानः-दूसरे के मन में मोचे हुए भावों को सामान्य रूप से जानना ऋजुमति मनःपर्यय ज्ञान है । जैसे
अमुक व्यक्ति ने घड़ा लाने का विचार किया है। विपुलमति मनः पर्यय ज्ञान:-दूसरे के मन में सोचे हुए पदार्थ
के विषय में विशेष रूप से जानना विपुलमति मनःपर्यय ज्ञान है । जैसे अमुक ने जिस घड़े को लाने का विचार किया है वह घड़ा अमुक रङ्ग का, अमुक आकार वाला, और अमुक समय में बना है। इत्यादि विशेप पर्यायों-अवस्थाओं को जानना।
(ठाणांग २ उद्देशा १ सूत्र ५१) १५-परोक्ष ज्ञान के दो भेदः--
(१) आभिनित्रोधिक ज्ञान ( मतिज्ञान ) (२) श्रुतज्ञान । आभिनियोधिक ज्ञानः-पांचों इन्द्रियों और मन के द्वारा योग्य देश में रहे हुए पदार्थ का जो ज्ञान होता है वह आभिनिवोधिका