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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह (४) रूपातीत--रूप रहित निरंजन निर्मल सिद्ध भगवान् का
आलंबन लेकर उसके साथ आत्मा की एकता का चिन्तन करना रूपातीत ध्यान है।
(ज्ञानार्णव)
(योगशास्त्र) (कतन्य कौमुदी भाग २
श्लोक २०८, २०६ पृष्ठ १२७-२८) (१)-शुक्ल ध्यान के चार भेद
(१) पृथकत्व वितर्क मविचारी। (२) एकत्व वितर्क अविचारी। (३) सूक्ष्म क्रिया अनिवर्ती।
(४) ममुच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाती। (२) पृथकन्य वितर्क मविचारी-एक द्रव्य विषयक अनेक पर्यायों
का पृथक पृथक रूप से विस्तार पूर्वक पूर्वगत श्रुत के अनुसार द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक आदि नयों से चिन्तन करना पृथकत्व वितर्क सविचारी है । यह ध्यान विचार सहित होता है । विचार का स्वरूप है अर्थ, व्यञ्जन (शब्द) एवं योगों में संक्रमण । अर्थात् इस ध्यान में अर्थ से शब्द में, और शब्द से अर्थ में, और शब्द से शब्द में, अर्थ से अर्थ में एवं एक योग से दूसरे योग में संक्रमण होता है ।
पूर्वगत श्रुत के अनुसार विविध नयों से पदार्थों की पर्यायों का भिन्न भिन्न रूप से चिन्तन रूप यह शुक्ल ध्यान पूर्वधारी को होता है। और मरुदेवी माता की तरह जो पूर्वधर नहीं है, उन्हें अर्थ,व्यञ्जन एवं योगों में परम्पर संक्रमण रूप यह शुक्लध्यान होता है।