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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला त्राण रूप कोई नहीं है। यदि कोई आत्मा का त्राण करने चाला है तो जिनेन्द्र भगवान् का प्रवचन ही एक त्राण शरण रूप है । इस प्रकार आत्मा के त्राण शरण के अभाव
की चिन्ता करना अशरण भावना है। (४) संसार भावना-इस संसार में माता बन कर वही जीव,
पुत्री, बहिन एवं स्त्री बन जाता है और पुत्र का जीव पिता, भाई यहाँ तक कि शत्रु बन जाता है । इस प्रकार चार गति में, सभी अवस्थाओं में संसार के विचित्रता पूर्ण स्वरूप का विचार करना संसार भावना है।
(ठाणांग ४ सूत्र २४७) २२४--धर्मध्यान के चार भेद--
(१) पिण्डस्थ (२) पदस्थ ।
(३) रूपस्थ, (४) रूपातीत । (१) पिण्डस्थ--पार्थिवी, आग्नेयी, आदि पांच धारणाओं का
एकाग्रता से चिन्तन करना पिण्डस्थ ध्यान है । (२) पदस्थ-नाभि में सोलह पांखड़ी के, हृदय में चौबीस
पांखड़ी के तथा मुख पर आठ पांखड़ी के कमल की कल्पना करना और प्रत्येक पांखड़ी पर वर्णमाला के अ आ इ ई
आदि अक्षरों की अथवा पञ्च परमेष्ठि मंत्र के अक्षरों की स्थापना करके एकाग्रता पूर्वक उनका चिन्तन करना अर्थात् किसी पद के आश्रित होकर मन को एकाग्र करना पदस्थ
ध्यान है।
(३) रूपस्थ--शास्त्रोक्त अरिहन्त भगवान् की शान्त दशा को
हृदय में स्थापित करके स्थिर चित्त से उसका ध्यान करना रूपस्थ ध्यान है।