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________________ श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला २१० (२) एकत्व वितर्क विचारी - पूर्वगत श्रुत का आधार लेकर उत्पाद आदि पर्यायों के एकत्व अर्थात् अभेद से किसी एक पदार्थ अथवा पर्याय का स्थिर चित्त से चिन्तन करना एकत्व वितर्क है । इस ध्यान में अर्थ, व्यञ्जन एवं योगों का संक्रमण नहीं होता । निर्वात गृह में रहे हुए दीपक की तरह इस ध्यान में चित्त विक्षेप रहित अर्थात् स्थिर रहता है । (३) सूक्ष्म क्रिया अनिवर्ती - निर्वाण गमन के पूर्व केवली भगवान् मन, वचन, योगों का विरोध कर लेते हैं और अर्द्ध काययोग का भी निरोध कर लेते हैं । उस समय केवली के कायिकी उच्छवास आदि सूक्ष्म क्रिया ही रहती है । परिणामों के के विशेष बड़े चढ़े रहने से यहाँ से केवली पीछे नहीं हटते। यह तीसरा सूक्ष्म क्रिया अनिर्वती शुक्लध्यान है । (४) समुच्छिन्न क्रिया प्रतिपाती - शैलेशी यवस्था को प्राप्त केवली सभी योगों का निरोध कर लेना है । योगों के निरोध से सभी क्रियाएं नष्ट हो जाती हैं । यह ध्यान सदा बना रहता है । इस लिए इसे ममुन्नि क्रिया अप्रतिपाती शुक्लध्यान कहते हैं । पृथकत्व वितर्क विचारी शुक्लध्यान सभी योगों में होता है । एक वितर्क विचार शुक्लध्यान किसी एक ही योग में होता है । सूक्ष्म क्रिया अनिर्वती शुक्लध्यान केवल काय योग में होता है । चौथा समुच्छिन्न क्रिया प्रतिपाती शुक्लध्यान अयोगी को ही होता है । छद्मस्थ 1
SR No.010508
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1940
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size12 MB
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