________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह 433 (1) उन्मार्ग देशना:--ज्ञानादि धर्म मार्ग पर दोष न लगाते हुए स्व-पर के अहित के लिये सूत्र विपरीत मार्ग कहना उन्मार्ग देशना है। (2) मार्ग दूषण:--पारमार्थिक ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप सत्य धर्म मार्ग और उसके पालने वाले साधुओं में स्वकल्पित दुषण बतलाना मार्ग दूपण है। (3) मार्ग विप्रतिपतिः-ज्ञानादि रूप धर्म मार्ग पर दूषण लगा कर देश से सूत्र विरुद्ध मार्ग को अङ्गीकार करना मार्ग विप्रतिपत्ति है। (4) मोह:--मन्द बुद्धि पुरुष का अति गहन ज्ञानादि विचारों में मोह प्राप्त करना तथा अन्य तीर्थियों की विविध ऋद्धि देख कर ललचा जाना मोह है। (5) मोह जननः-सद्भाव अथवा कपट से अन्य दर्शनों में दूसरों को मोह प्राप्त कराना मोह जनन है / ऐसा करने वाले प्राणी को बोध बीज रूपी समकित की प्राप्ति नहीं होती। ये पच्चीस भावनाएं चारित्र में विघ्न रूप हैं। इनके निरोध से सम्यक चारित्र की प्राप्ति होती है। ( बोल नम्बर 401 से 406 तक के लिये प्रमाण) (प्रवचन सारोद्धार द्वार 73) (उत्तराध्ययन अध्ययन 36 गाथा 261 से 264) ४०७--सांसारिक निधि के पाँच भेदः विशिष्ट रत्न सुवर्णदि द्रव्य जिसमें रखे जाय ऐसे पात्रादि को निधि कहते हैं / निधि की तरह जो आनन्द