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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह २४१ है । यदि वह देवे तो मैं भोगूं, ऐसी इच्छा करता है। उसके लिए याचना करता है और अति अभिलाषा करता है। उसके मिल जाने पर और अधिक चाहता है । इस प्रकार दूसरे के लाभ में से प्राशा, इच्छा, याचना यावत् अभिलाषा करता हुआ वह मन को ऊँचा नीचा करता है । इस कारण
वह धर्म से भ्रष्ट होजाता है । यह दूसरी दुःख शय्या है। (३) तीसरी दुःख शय्या:-कोई कर्म बहुल प्राणी दीक्षित होकर
देव तथा मनुष्य सम्बन्धी काम भोग पाने की आशा करता है । याचना यावत् अभिलाषा करता है । इस प्रकार करने हुए वह अपने मन को ऊँचा नीचा करता है और धर्म से
भ्रष्ट हो जाता है । यह तीसरी दुःख शय्या है। (४) चौथी दुःख शय्या-कोई गुरु कर्मी जीव साधुपन लेकर सोचना
है कि मैं जब गृहस्थ वास में था। उस समय तो मेरे शरीर पर मालिश होती थी। पीठी होती थी। तैलादि लगाए जाते थे
और शरीर के अङ्ग उपाङ्ग धोये जाते थे अर्थात् मुझे स्नान कराया जाता था। लेकिन जब से साधु बना हूँ। तब से मुझे ये मर्दन आदि प्राप्त नहीं हैं । इस प्रकार वह उनकी
आशा यावत् अभिलाषा करता है और मन को ऊँचा नीचा करता हुआ धर्म भ्रष्ट होता है । यह चौथी दुःख शय्या है। श्रमण को ये चारों दुःख शय्या छोड़ कर संयम में मनको
स्थिर करना चाहिए। (ठाणांग ४ सूत्र ३२५) २५६ सुख शय्या चार:
ऊपर बताई हुई दुःख शय्या से विपरीत सुख शग्या जाननी चाहिए । वे संक्षेप में इस प्रकार हैं: