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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला (१) जिन प्रवचन पर शंका, कांक्षा, विचिकित्सा न करता हुआ
तथा चित्त को डांवा डोल और कलुषित न करता हुआ साधु निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि रखता है और मन को संयम में स्थिर रखता है । वह धर्म से भ्रष्ट नहीं होता अपितु धर्म पर और भी अधिक दृढ़ होता है । यह
पहली सुख शय्या है। (२) जो साधु अपने लाभ से मन्तुष्ट रहता है और दूसरों के
लाभ में से प्राशा, इच्छा, याचना और अभिलाषा नहीं करता । उस सन्तोषी माधु का मन संयम में स्थिर रहता है
और वह धर्म भ्रष्ट नहीं होता । यह दुमरी सुख शय्या है । (३) जो साधु देवता और मनुष्य सम्बन्धी काम भोगों की आशा
यावत् अभिलाषा नहीं करता । उसका मन संयम में स्थिर रहता है और वह धर्म से भ्रष्ट नहीं होता। यह तीसरी
सुख शय्या है। (४) कोई साधु होकर यह सोचता है कि जब हृष्ट,नीरोग,बलवान्
शरीर वाले अरिहन्त भगवान् श्राशंसा दोष रहित अत एव उदार, कल्याणकारी, दीर्घ कालीन, महा प्रभावशाली, कमों को क्षय करने वाले तप को संयम पूर्वक आदर भाव से अंगीकार करते हैं । तो क्या मुझे केश लोच, ब्रह्मचर्य आदि में होने वाली आभ्युपगमिकी और ज्वर, अतिसार आदि रोगों से होने वाली औपक्रमिकी वेदना को शान्ति पूर्वक, दैन्यभाव न दर्शाते हुए, विना किसी पर कोप किए सम्यक् प्रकार से सम भाव पूर्वक न सहना