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श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
नोट: -- उपरोक्त दृष्टान्त देश दृष्टान्त हैं । इस लिए सभी बातों में साधर्म्य नहीं है । जैसे मरुदेवी माता मुंडित न हुई, इत्यादि । किन्तु भाव में समानता है । ( ठाणांग ४ सूत्र २३५ ) २५५: - भाव दुःख शय्या के चार प्रकार:
पलङ्ग विछौना वगैरह जैसे होने चाहिएं, वैसे न हों, दुःखकारी हों, तो ये द्रव्य से दुःख शय्या रूप हैं । चित्त (मन) श्रमण स्वभाव वाला न होकर दुःश्रमणता वाला हो, तो वह भाव से दुःख शय्या है। भाव दुःख शय्या चार हैं । (१) पहली दुःख शय्या: - किसी गुरु (भारी) कर्म वाले मनुष्य ने मुंडित होकर दीक्षा ली । दीक्षा लेने पर वह निर्ग्रन्थ प्रवचन में शङ्का, कांक्षा ( पर मत अच्छा है । इस प्रकार की बुद्धि ) विचित्सा ( धर्म फल के प्रति सन्देह ) करता है जिन शासन में कहे हुए भाव वैसे ही हैं अथवा दूसरी तरह के हैं ? इस प्रकार चित्त को डांवा डोल करता है । कलुष भाव अर्थात् विपरीत भाव को प्राप्त करता है । वह जिन प्रवचन पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि नहीं रखता । जिन प्रवचन में श्रद्धा प्रतीति न करता हुआ और रुचि न रखता हुआ मन को ऊँचा नीचा करता है। इस कारण वह धर्म से भ्रष्ट होजाता है । इस प्रकार वह श्रमणता रूपी शय्या में दुःख से रहता है ।
(२) दूसरी दुःख शय्या : - कोई कर्मों से भारी मनुष्य प्रव्रज्या लेकर अपने लाभ से सन्तुष्ट नहीं होता । वह असन्तोषी बन कर दूसरे के लाभ में से, वह मुझे देगा, ऐसी इच्छा रखता
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