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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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तरह भिन्न भिन्न कर्म पुद्गलों में भिन्न २ प्रकार की प्रकृतियों के बन्ध होने को प्रकृति बन्ध कहते हैं । जैसे कोई मोदक एक सप्ताह, कोई एक पक्ष, कोई एक मास तक निजी स्वभाव को रखते हैं। इसके बाद में छोड़ देते हैं अर्थात् विकृत हो जाते हैं। मोदकों की काल मर्यादा की तरह कर्मों की भी काल मर्यादा होती है । वही स्थिति बन्ध है । स्थिति पूर्ण होने पर कर्म आत्मा से जुदे हो जाते हैं ।
कोई मोदक रस में अधिक मधुर होते हैं तो कोई कम । कोई रस में अधिक कटु होते हैं, कोई कम । इस प्रकार मोदकों में जैसे रसों की न्यूनाधिकता होती है। उसी प्रकार कुछ कर्म दलों में शुभ रस अधिक और कुछ में कम । कुछ कर्म दलों में शुभ रस अधिक और कुछ में अशुभ रस कम होता है । इसी प्रकार कर्मों में तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम मन्द, मन्दतर, मन्दतम शुभाशुभ रसों का बन्ध होना रस बन्ध है । यही बन्ध अनुभाग बन्ध भी कहलाता है ।
कोई मोदक परिमाण में दो तोले का, कोई पांच तोले और कोई पाव भर का होता है । इसी प्रकार भिन्न २ कर्म दलों में परमाणुओं की संख्या का न्यूनाधिक होना प्रदेश बन्ध कहलाता है ।
यहाँ यह भी जान लेना चाहिए कि जीव संख्यात असंख्यात और अनन्त परमाणुओं से बने हुए कार्माण स्कन्ध को ग्रहण नही करता परन्तु अनन्तानन्त परमाणु