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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला वाले स्कन्ध को ग्रहण करता है।
(ठाणांग ४ सूत्र २६६)
(कर्मग्रन्थ भाग पहला) प्रकृति बन्ध और प्रदेश बन्ध योग के निमित्त से होते हैं। स्थिति बन्ध तथा अनुभाग बन्ध कषाय के
निमित्त से बंधते हैं। २४६-उपक्रम की व्याख्या और भेदः
उपक्रम का अर्थ आरम्भ है । वस्तु परिकर्म एवं वस्तु विनाश को भी उपक्रम कहा जाता है। उपक्रम के चार भेद हैं। (१) बन्धनोपक्रम (२) उदीरणोपक्रम ।
(३) उपशमनोपक्रम (४) विपरिणामनोपक्रम । (१) बन्धनोपक्रम-कर्म पुद्गल और जीव प्रदेशों के परस्पर
सम्बन्ध होने को बन्धन कहते हैं । उसके आरम्भ को बन्धनोपक्रम कहते हैं। अथवा बिखरी हुई अवस्था में रहे हुए कर्मों को आत्मा से सम्बन्धित अवस्था वाले कर देना
बन्धनोपक्रम है। (२) उदीरणोपक्रम-विपाक अर्थात् फल देने का समय न होने
पर भी कर्मों का फल भोगने के लिए प्रयत्न विशेष से उन्हें उदय अवस्था में प्रवेश कराना उदीरणा है। उदीरणा
के प्रारम्भ को उदीरणोपक्रम कहते हैं। (३) उपशमनोपक्रम-कर्म उदय, उदीरणा, निधत्त करण
और निकाचना करण के अयोग्य हो जायें, इस प्रकार उन्हें स्थापन करना उपशमना है । इसका प्रारम्भ