________________
भूमिका इस अनादि संसार चक्र में प्रत्येक आत्मा अपने अपने कर्मों के अनुसार सुग्व और दुःख का अनुभव कर रहा है। किन्तु जो आत्मिक आनन्द है, उससे वञ्चिन ही है । कारण कि आत्मिक आनन्द क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव पर ही निर्भर है । सो जब तक आत्मा उक्त भावों की ओर लक्ष्य नहीं करता अर्थात् सम्यक्तया उक्त भावों में प्रविष्ट नहीं होता तब तक आत्मा की आत्मिक आनन्द की प्राप्ति भी नहीं हो सकती । इस लिये आगमों में विधान किया गया है कि जब तक आत्मा को चार अंगों को प्राप्ति नहीं होती तब तक आत्मा मोक्ष को भी प्राप्ति नहीं कर सकता। जैसे किः
चत्तारि परमंगाणि दुल्लहाणीह जन्तुणो । माणुसत्तं मुई सद्धा, संजमम्मि य वीरियम ॥ १ ॥
(उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन ३ गाथा १) इस गाथा का यह भाव है कि प्रत्येक आत्मा को चार अंगों की प्राप्ति होना दुलभ है। वे चार अङ्ग ये हैं:-मनुष्यत्व, श्रुति, श्रद्धा, और मंयम में पुरुषार्थ । जब ये सम्यक नया प्राप्त हो जाय तव निस्संदेह उस जीव की मुक्ति हो जाती है । उक्त गाथा में मनुष्यत्व के अनन्तर ही अति शब्द दिया गया है । इम में प्रायः आत्म विकास का कारण श्रुत ज्ञान हो मुख्य कारण प्रति पादन किया है।
श्रुत ज्ञान के विषय, शास्त्रों में पांच ज्ञानों में से परोपकारी सिर्फ श्रुत ज्ञान को ही प्रतिपादन किया है। इस के नन्दी मूत्र में चतुर्दश भेद कथन किए गए