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[ १५ ] हैं । वे भेद जिज्ञासुओं के अवश्य ही द्रष्टव्य हैं । उपयोग पूर्वक कथन करता हुआ श्रुत केवली भगवान् की शक्ति के तुल्य हो जाता है । तथा श्रुन ज्ञान के अध्ययन करने से आत्मा स्व विकाम और परोपकार करने की शक्ति उत्पन्न कर लेता है इतना ही नहीं किन्तु सम्यगश्रुत के अध्ययन से सम्यग दर्शन को भी उत्पन्न कर सकता है । जैसे कि उत्तराध्ययन सूत्र के २८ वें अध्ययन की २१ वी वा २३ वीं गाथा में वर्णन किया है ।
जो सुत्तमहिज्जन्ती, सुपण ओगाहई उ संमत्तं । अंगेण वाहिरेण वा, सो सुत्तम्इ ति नायब्बो ॥ २१ ॥ सो होइ अभिगम गई. सुय नांण जेण अत्थो दि] । इकारस अंगाई, पइएणगं दिट्टिवायो य ॥ २३ ॥
इन गाथाओं का यह भाव है कि अंग सूत्र वा अंगबाह्य सूत्र तथा दृष्टि वाद अथवा प्रकीर्णक ग्रन्थों के अध्ययन से मूत्र रुचि और अभिगम रुचि उत्पन्न हो जाती है। जो सम्यग दर्शन के ही उपभेद है।
प्रस्तुत ग्रन्थ विषय ___ सम्यग दर्शन की प्राप्ति के लिये ही 'श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह" अर्थात् प्रस्तुत ग्रन्थ निर्माण किया गया है।
कारण कि शास्त्रों में चार अनुयोगों का विस्तार पूर्वक वर्णन किया है जो कि मुमुक्षु आत्माओं के लिये अवश्यमेव पठनीय है । जैसे कि:-चरण करणानुयोग, धर्म कथानुयोग, गणिनानुयोग, द्रव्या नुयोग । इस ग्रन्थ में चार अनुयोगों का यथा स्थान बड़ी ही सुन्दर रीनि से संग्रह किया है तथा प्रत्येक स्थान अपनी अनुपम उपमा रखता है । जैसे एक स्थान में ऐसे बोलों का संग्रह किया गया है जो सामान्य रूप से एक ही संख्या वाले हैं । जैसे सामान्य रूप से आत्मा एक है क्योंकि उपयोग लक्षण आत्मा का निज गुण है । वह सामान्य रूप से प्रत्येक जीव में रहता है। जिस द्रव्य में उपयोग लक्षण नहीं है उसी