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[ १६ ] द्रव्य को अनात्मा वा अजीव द्रव्य कहते हैं। कारण कि प्रत्येक पदार्थ की सिद्धि उसके द्रव्य, गुण, और पर्याय से की जाती है। प्रथम स्थान में बड़ी सुन्दर शैली से आगमों से वा आगमों के अविरुद्ध ग्रन्थों से एक एक बोल का संग्रह किया गया है।
द्वितीय अंक में दो दो बोलों का संग्रह है। उसमें सामान्य और विशेष वा पक्ष, प्रतिपक्ष बोलों का संग्रह है। जैसे जीव और अजीव, पुण्य और पाप, बन्ध और मोक्ष इत्यादि । इसी प्रकार हेय, ज्ञेय और उपादेय से सम्बन्ध रखने वाले अनेक बोल संग्रह किये गये हैं । स्थानाङ्ग सूत्र के द्वितीय स्थान में उपादेय का वर्णन करते हुये कथन किया है कि दो स्थानों से युक्त आत्मा अनादि संसार चक्र से पार हो जाता है जैसे किः
दाहिं ठाणेहिं अणगारे संपन्ने अणादियं अणवयग्गं दीहमद्धं चाउरंत संसार कतारं वीनिवतेमा, तं जहा विज्जाए चेव चरणेण वा ।
(द्वितीय स्थान उद्देश प्रथम सूत्र ६३) इस सूत्र का यह भाव है कि दो स्थानों से युक्त अनगार अनादि संसार चक्र से पार हो जाता है। जैसे कि विद्या से और चारित्र से। यह सूत्र प्रत्येक मुमुक्षु के मनन करने योग्य है क्योंकि इस सूत्र से जातिवाद और कुल-वाद का खण्डन स्वयमेव हो जाता है अर्थात जाति और कुल से कोई भी संसार चक्र से पार नहीं हो सकता । जब होगा विद्या और चारित्र से होगा। इस प्रकार प्रस्तुत प्रन्थ में शिक्षाप्रद वा ज्ञातव्य आगमों से उद्धृत कर संग्रह किया गया है जो अवश्य पठनीय है।
तीन तीन के बोल संग्रहों में बड़े ही विचित्र और शिक्षाप्रद बोलों का संग्रह है। इस लिए ज्ञान संपादन के लिए प्रस्तुत ग्रन्थ का अवश्य ही स्वाध्याय करना चाहिए । स्थानाङ्ग सूत्र के तृतीय स्थान के चतुर्थ उद्देशा के २१७ वें सूत्र में लिखा है कि: