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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला (१) प्रथम अन्तक्रिया-कोई जीव अल्प कर्म वाला हो कर
मनुष्य भव में उत्पन्न हुआ। उसने मुंडित हो कर गृहस्थ से साधुपने की प्रवज्या ली। वह प्रचुर संयम, संवर
और समाधि सहित होता है। वह शरीर और मन से रूक्ष द्रव्य और भाव से स्नेह रहित संसार समुद्र के पार पहुँचने की इच्छा वाला, उपधान तप वाला, दुःख एवं उसके कारण भूत कर्मों का क्षय करने वाला, आभ्यन्तर तप अर्थात् शुभ ध्यान वाला होता है । वह श्री वर्धमान स्वामी की तरह वैसा घोर तप नहीं करता, न परिषह उपसर्ग जनित घोर वेदना सहता है । इस प्रकार का वह पुरुष दीर्घ दीक्षा पर्याय पाल कर सिद्ध होता है। बुद्ध होता है । मुक्त होता है । निर्वाण को प्राप्त करता है एवं सभी दुःखों का अन्त करता है। जैसे भरत महाराज । भरत महाराज लघु कर्म वाले होकर सर्वार्थसिद्ध विमान से चवे, वहाँ से चव कर मनुष्य भव में चक्रवर्ती रूप से उत्पन्न हुए। चक्रवर्ती अवस्था में ही केवल ज्ञान उत्पन्न कर उन्होंने एक लाख पूर्व की दीक्षा पाली एवं विना घोर तप किए और
विना विशेष कष्ट सहन किये ही मोक्ष पधार गये। (२) दूसरी अन्तक्रिया-कोई पुरुष महा कर्म वाला हो कर मनुष्य
भव में उत्पन्न हुआ। वह दीक्षित हो कर यावत् शुभध्यान वाला होता है । महा कर्म वाला होने से उन कर्मों का क्षय करने के लिए वह घोर तप करता है । इसी प्रकार घोर वेदना भी सहता है । उस प्रकार का वह पुरुष थोड़ी