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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह २५३-कर्म की चार अवस्थाएं
(१) बन्ध । (२) उदय ।
(३) उदीरणा । (४) सत्ता । (१) बन्ध-मिथ्यात्व आदि के निमित्त से ज्ञानावरणीय आदि
रूप में परिणत होकर कर्म पुद्गलों का आत्मा के साथ
दूध पानी की तरह मिल जाना बन्ध कहलाता है । (२) उदय-उदय काल अर्थात् फलदान का समय आने पर
कर्मों के शुभाशुभ फल का देना उदय कहलाता है । (३) उदीरणा-अावाध काल व्यतीत हो चुकने पर भी जो
कर्म-दलिक पीछे से उदय में आने वाले हैं। उनको प्रयत्न विशेष से खींच कर उदय प्राप्त दलिकों के साथ भोग लेना उदीरणा है। ____ बंधे हुए कर्मों से जितने समय तक आत्मा को आबाधा नहीं होती अर्थात् शुभाशुभ फल का वेदन नहीं
होता उतने समय को आबाधा काल समझना चाहिए। (४) सत्ता-बंधे हुए कर्मों का अपने स्वरूप को न छोड़ कर आत्मा के साथ लगे रहना सत्ता कहलाता है।
(कर्मग्रन्थ भाग २ गाथा १) २५४-अन्तक्रियाएं चार
कर्म अथवा कर्म कारणक भव का अन्त करना अन्तक्रिया है। यों तो अन्तक्रिया एक ही स्वरूप वाली होती है। किन्तु सामग्री के भेद से चार प्रकार की बताई