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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
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इसके चार भेद हैं:
( १ ) प्रकृति संक्रम |
(३) अनुभाग संक्रम |
(२) स्थिति संक्रम | (४) प्रदेश संक्रम |
( ठाणांग ४ सूत्र २६६
२५१ - निधत्त की व्याख्या और भेद:उद्वर्त्तना और अपवर्तन करण के सिवाय विशेष करणों योग्य कर्मों को रखना निधत कहा जाता है । निधत्त अवस्था में उदीरणा, संक्रमण वगैरह नहीं होते हैं । तपा कर निकाली हुई लोह शलाका के सम्बन्ध के समान पूर्ववद्ध कर्मों को परस्पर मिलाकर धारण करना निधत्त कहलाता है । इसके भी प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश रूप से चार भेद होते हैं ।
( ठाणांग ४ सूत्र २६६ )
२५२ - निकाचित की व्याख्या और भेद:
जिन कर्मों का फल बन्ध के अनुसार निश्चय ही भोगा जाता है। जिन्हें विना भोगे छुटकारा नहीं होता। वे निकाचित कर्म कहलाते हैं । निकाकित कर्म में कोई भी करण नहीं होता । तपा कर निकाली हुई लोह शलाकायें (सुइयें) घन से कूटने पर जिस तरह एक हो जाती हैं । उसी प्रकार इन कर्मों का भी आत्मा के साथ गाढ़ा सम्बन्ध हो जाता है । निकाचित कर्म के भी प्रकृति, स्थिति अनुभाग और प्रदेश के भेद से चार भेद हैं।
( ठारणांग ४ सूत्र २६६ )