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श्री जैन सिद्धान बोल मंग्रह मार्गश-जिस अनुष्टान या कार्य से निःश्रेयम-कल्याण की
प्राप्ति हो वही धर्म है।
धर्म के दो भेद हैं । (१) श्रुतधर्म (२) चारित्र धर्म । श्रुतधर्म-अंग और उपांग रूप वाणी को श्रुतधर्म कहने
हैं। वाचना, पृच्छना, आदि स्वाध्याय के भेद भी श्रुत
धर्म कहलाते हैं। चारित्र धर्म:-कर्मों के नाश करने की चेष्टा चारित्र धर्म है।
अथवा:मूल गुण और उत्तर गुणों के समूह को चारित्र धर्म कहते हैं। अर्थात् क्रिया रूप धर्म ही चारित्र धर्म है ।
(ठाणांग २ उद्देशा १ मत्र ७२) १४-श्रुतधर्म के दो भेदः-(१) सूत्रश्रुतधर्म (२) अर्थ श्रत धर्म ।
सूत्र श्रुतधर्म-(शब्द रूप श्रुतधर्म) द्वादशांगी और उपांग
आदि के मूलपाठ को सूत्रश्रुतधर्म कहते हैं। अर्थश्रुत धर्म--द्वादशांगी और उपांग आदि के अर्थ को अर्थश्रुत धर्म कहते हैं।
(ठाणांग २ उद्देशा १ मूत्र ७२ ) २०-चारित्र धर्म के दो भेदः
(१) अगार चारित्र धर्म (२) अनगार चारित्र धर्म । अगार चारित्र धर्मः अगारी (श्रावक) के देश विति धर्म
को अगार चारित्र धर्म कहते हैं। अनगार चारित्र धर्मः-अनगार (साधु) के मर्व विरति धर्म
को अनगार चारित्र धर्म कहते हैं । सर्व विरति रूप धर्म में-तीन करण तीन योग से त्याग होता है।
(ठाणांग २ उद्देशा १ मूत्र ७२ )