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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह सुअधीत, ध्यान और तप के भेद से भी धर्म तीन प्रकार का है। ७७-दर्शन के तीन भेदः(१) मिथ्या दर्शन (२) सम्यग दर्शन (३) मिश्र दर्शन ।
(ठाणांग ३ सूत्र १८४) मिथ्या दर्शन:-मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के उदय से अदेव में
देवबुद्धि और अधर्म में धर्मबुद्धि आदि रूप आत्मा के विपरीत श्रद्धान को मिथ्या दर्शन कहते हैं।
(भगवती शतक ८ उद्देशा २) सम्यग दर्शन:-मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के क्षय उपशम या
क्षयोपशम से आत्मा में जो परिणाम होता है उसे सम्यग दर्शन कहते हैं । सम्यग दर्शन हो जाने पर मति आदि
अज्ञान भी मम्यग ज्ञान रूप में परिणत हो जाते हैं। मिश्र दर्शनः-मिश्र मोहनीय कर्म के उदय से आत्मा में कुछ अयथार्थ तत्त्व श्रद्धान होने को मिश्र दर्शन कहते हैं ।
(भगवती शतक ८ उद्देशा २) (ठाणांग ३ उद्देशा ३ सूत्र १८४)
(विशेषावश्यक भाष्य गाथा ४११) ७८-करण की व्याख्या और भेदः-आत्मा के परिणाम विशेष
को करण कहते हैं । करण के तीन भेदः(१) यथाप्रवृत्तिकरण (२) अपूर्वकरण
(३) अनिवृत्तिकरण। यथाप्रवृत्तिकरण: आयु कर्म के सिवाय शेष सात कर्मों में
प्रत्येक की स्थिति को अन्तः कोटाकोटि सागरोपम परिमाण