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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला जिन कहलाते हैं । ये दोनों उपचार से जिन हैं और निश्चयप्रत्यक्ष ज्ञान ही उपचार का कारण है।
(ठाणांग ३ उद्देशा ४ मूत्र २२०) ७५-दुःसंज्ञाप्यः तीन-जो दुःख पूर्वक कठिनता से समझाये
जाने हैं । वे दुमंज्ञाप्य कहलाते हैं। दुःमंज्ञाप्य तीन:-(१) द्विष्ट (२) मूढ़ (३) व्युद् ग्राहित । द्विष्टः-तत्त्व या व्याख्याता के प्रति द्वेष होने से जो जीव उपदेश
अङ्गीकार नहीं करता वह द्विष्ट है । इस लिए वह दुःसंज्ञाप्य
होता है। मृहः-गुण दोष का अजान, अविवेकी, मूढ़ पुरुष व्याख्याना
के ठीक उपदेश का अनुमरण यथार्थ रूप से नहीं करता।
इम लिए वह दुःसंज्ञाप्य होता है। व्युद् ग्राहितः-कुव्याख्याता के उपदेश से विपरीत धारणा
जिसमें जड़ पकड़ गई हो उसे समझाना भी कठिन है। इस लिए व्युद् ग्राहित्त भी दुःसंज्ञाप्य होता है।
. (ठाणांग ३ उद्देशा ४ सूत्र २०३) ७६-धर्म के तीन भदः
(१) श्रुत धर्म (२) चारित्र धर्म
(३) अस्तिकाय धर्म। नोट:-बोल नम्बर १८ में श्रुतधर्म और चारित्र धर्म की व्याख्या दी जा चुकी है।
(ठाणंग २ उद्देशा ३ सूत्र १८८) अस्तिकाय धर्म:-धर्मास्तिकाय आदि को अस्तिकाय धर्म कहते हैं ।
(ठाणांग ३ उद्देशा ४ सूत्र २१७)