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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
रख कर बाकी स्थिति को क्षय कर देने वाले समकित के अनुकूल आत्मा के अध्यवमाय विशेष को यथाप्रवृत्ति करण कहते हैं ।
: कोड़ाकोड़ी (कोटाकोटि) का आशय एक कोड़ाकोड़ी में पल्पोमम के असंख्यातवं भाग न्यून स्थिति से है ।
अनादि कालीन मिथ्यात्वी जीव कर्मों की स्थिति को इस करण में उसी प्रकार घटाता है जिम प्रकार नदी में पड़ा हुआ पत्थर घिसते घिमते गोल हो जाता है । अथवा घुणाक्षर न्याय से यानि घुण कीट से कुतराने कुतराने जिम प्रकार काठ में अक्षर बन जाते हैं 1
यथाप्रवृत्तिकरण करने वाला जीव ग्रन्थिदेश -नाग द्वेष की तीव्रतम गांठ के निकट आ जाता है । पर उस गांठ का भेद नहीं कर सकता । अभव्य जीव भी यथाप्रवृत्ति करण कर सकते हैं।
अपूर्व करणः - भव्य जीव यथाप्रवृत्ति करण से अधिक विशुद्ध परिमाण पा सकता है । और शुद्ध परिणामों से रागद्वेष की तीव्रतम गांठ को छिन्न भिन्न कर सकता है । जिस परिणाम विशेष से भव्य जीव राग द्वेष की दुर्भेद्य ग्रन्थि को लांघ जाता है - नष्ट कर देता है । उस परिणाम को अपूर्व करण कहते हैं । ( विशेषावश्यक भाग्य गाथा १२०२ से १२१८ ) नोट:-प्रन्थिभेद के काल के विषय में मतभेद है। कोई आचार्य तो अपूर्व करण में ग्रन्थिभेद मानते हैं और कोई