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श्रा जैन सिद्धान्त बोल मंग्रह अनिवृतिकरण में । और यह भी मन्तव्य है कि अपूर्वकरण में ग्रन्थि भेद आरम्भ होता है और अनिवृत्तिकरण में पूर्ण होता है । अपूर्वकरण दुबारा होता है या नहीं इस विषय में
भी दो मत है। अनिवृत्तिकरणः-अपूर्वकरण परिणाम से जब राग द्वेष की गांठ
टूट जाती है । तब तो और भी अधिक विशुद्ध परिणाम होता है । इस विशुद्ध परिणाम को अनिवृत्तिकरण कहते हैं। अनिवृत्तिकरण करने वाला जीव समकित को अवश्य प्राप्त कर लेता है।
(आवश्यक मलयगिरि गाथा १०६-१०७ टीका) (विशेषावश्यक भाष्य गाथा १२०२ से १२१८) (प्रवचसारोद्धार गाथा १३०२ टीका)
( कर्मग्रन्थ दूसरा भाग)
(आगमसार) ७६-मोक्ष मार्ग के तीन भेदः
(१) सम्यगदर्शन (२) सम्यगज्ञान (३) सम्यक चारित्र । सम्यगदर्शन:-तत्वार्थ श्रद्धान को सम्यगदर्शन कहते हैं । मोह
नीय कर्म के क्षय, उपशम या क्षयोपशम से यह उत्पन्न
होता है। सम्यगज्ञान:-प्रमाण और नय से होने वाला जीवादि तत्त्वों का
यथार्थ ज्ञान मम्यगज्ञान है । वीर्यान्तगय कर्म के माथ ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय, उपशम या क्षयोपशम होने से
यह उत्पन्न होता है। सम्यगचारित्रः-मंसार की कारणभूत हिंमादि क्रियाओं का
त्याग करना और मोक्ष की कारणभूत मामायिक आदि