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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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अर्थात्ः -- भगण, जगण और सगण, आदि मध्य और अव सान (अन्त) में गुरु होते हैं । और यगण, रगण और तगण आदि मध्य अवसान में लघु होते हैं । मगरण सर्वगुरु और नगर सर्व लघु होता है ।
पिङ्गल शास्त्र के अनुसार इन आठ गणों में यगण मगण, भगण और नगण ये शुभ और जगण, रगण, सगण और तगण ये अशुभ माने गये हैं । ( सरल पिङ्गल )
२१४--चार इन्द्रियां प्राप्यकारी हैं:
विषय को प्राप्त करके अर्थात् विषय से सम्बद्ध हो कर उसे जानने वाली इन्द्रियां प्राप्यकारी कहलाती हैं । प्राप्यकारी इन्द्रियां चार हैं:
(१) श्रोत्रेन्द्रिय
(३) रसनेन्द्रिय
(२) घ्राणेन्द्रिय ।
(४) स्पर्शनेन्द्रिय ।
( ठारणांग ४ सूत्र ३३६ )
नोट- वैशेषिक, नैयायिक, मीमांसक और सांख्य दर्शन सभी इन्द्रियों को प्राप्यकारी मानते हैं । बौद्ध दर्शन में श्रत्र और चक्षु अप्राप्यकारी, और शेष तीन इन्द्रियों प्राप्यकारी मानी गई हैं । जैन दर्शन के अनुसार चतु प्रा प्यकारी और शेष चार इन्द्रियां प्राप्यकारी हैं । (रत्नाकरावतारिका परिच्छेद २)
२१५: - ध्यान की व्याख्या और भेद:ध्यान:——एक लक्ष्य पर चित्त को एकाग्र करना ध्यान है। अथवा छद्मस्थों का अन्तर्मुहूर्त परिमाण एक वस्तु में चित्त