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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
को स्थिर रखना ध्यान कहलाता है । एक वस्तु से दूसरी वस्तु में ध्यान के संक्रमण होने पर ध्यान का प्रवाह चिर काल तक भी हो सकता है। जिन भगवान् का तो योगों का निरोध करना ध्यान कहलाता है। ध्यान के चार भेद हैं:--
(१) अर्नध्यान (२) रौद्रध्यान
(३) धर्म ध्यान ( ४ ) शुक्लध्यान ।
(१) ध्यान - ऋत अर्थात् दुःख के निमित्त या दुःख में होने ध्यान कहलाता है । अथवा अर्थात् ध्यान कहलाता है ।
वाला ध्यान दु:खी प्राणी का ध्यान
(ठाणांग ४ सूत्र २५७)
अथवा:
मनो वस्तु के वियोग एवं अमनोज्ञ वस्तु के संयोग यदि कारण से चित्त की घबराहट ध्यान है ।
( समवायांग सूत्र समवाय ४ ) अथवा:
जीव मोहवश राज्य का उपभोग, शयन, आसन, वाहन स्त्री, गंध, माला, मणि, रत्न विभूषणों में जो अतिशय इच्छा करता है वह ध्यान है 1
( दशकालिक सूत्र अध्ययन १ को टीका ) (२) रौद्रध्यान: - हिंसा, झूठ, चोरी, धन रक्षा में मन को जोड़ना रोद्रध्यान है । ( समवायांग सूत्र ४ समवाय )
अथवा:
हिंसादि विषय का अतिक्रूर परिणाम रौद्रध्यान है ।
( ठाणांग ४ सूत्र २४७ )
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