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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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धारण कर ले । एवं इस के बाद यथासमय काल करके देवलोक में उत्पन्न हो । वह देवता धर्माचार्य के उपकार का ख्याल करके आवश्यकता पड़ने पर उन धर्माचार्य को दुर्भिक्ष वाले देश से दूसरे देश में पहुँचा देवे । निर्जन, भीषण अटवी में से उन का उद्धार करे । एवं दीर्घ काल के कुष्ठादि रोग एवं शूलादि आतङ्क से उनकी रक्षा करे । इतने पर भी वह देवता अपने परमोपकारी धर्माचार्य के उपकार का बदला नहीं चुका सकता । किन्तु यदि मोह कर्म के उदय से वह धर्माचार्य्यं स्वयं केवली प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाय और वह देवता उन्हें केवली प्ररूपित धर्म का स्वरूप बता कर, बोध देकर उन्हें पुन: धर्म में स्थिर कर दे तो वह देवता धर्माचार्य के ऋण से मुक्त हो सकता है। ( ठाणांग ३ सूत्र १३५ )
१२५ - आत्मा तीन
(१) वहिरात्मा (२) अन्तरात्मा (३) परमात्मा बहिरात्मा : -- जिस जीव को सम्यग ज्ञान के न होने से मोहवश शरीरादि बाह्य पदार्थों में आत्मबुद्धि हो कि "यह मैं ही हूँ, इन से भिन्न नहीं हूँ ।" इस प्रकार आत्मा को देह के साथ जोड़ने वाला अज्ञानी आत्मा बहिरात्मा है ।
अन्तरात्मा :- जो पुरुष बाह्य भावों को पृथक कर शरीर से भिन्न, शुद्ध ज्ञान - स्वरूप आत्मा में ही आत्मा का निश्चय करता है । वह आत्म-ज्ञानी पुरुष अन्तरात्मा है ।