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श्री जैन मिद्यान्न योल संग्रह अध्ययन होने से इसका नाम दशाश्रग स्कन्ध है । पहली दशा में असमाधि के स्थानों का वर्णन है । दूसरी दशा में इक्कीस शबल दोष दिये गये हैं । तीमरी दशा में तेतीस अशातनाएं प्रतिपादित हैं । चीथी दशा में आचार्य की आठ सम्पदाओं का वर्णन है। और आचार, श्रुत, विक्षेपणा एवं दोप निर्घातन रूप चार विनय तथा चार विनय प्रतिपत्ति का कथन है। पांचवीं दशा में दम चित्त ममाधि आदि का वर्णन है । छठी दशा में श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएं और सातवीं दशा में माधु की बारह प्रतिमायें तथा प्रतिमाधागे माधु के कर्तव्याकर्तव्य वर्णित हैं । आठवीं दशा में पंच कल्याण का वर्णन दिया गया है। नवमी दशा में तीस महा मोहनीय कर्म के बोल और उनके त्याग का उपदेश है । दशवी दशा में नव निदान (नियाणा) का सविस्तर वणन एवं निदान न करने का
उपदेश है । यह कालिक मूत्र है। (२) बृहत्कल्प सूत्र-कल्प शब्द का अर्थ मर्यादा है । माधु धर्म
की मर्यादा का प्रतिपादक होने से यह बृहत्कल्प के नाम से कहा जाता है । पाप का विनाशक, उत्मर्ग अपवाद रूप मार्गों का दर्शक, माधु के विविध प्राचार का प्ररूपक, इत्यादि अनेक बातों को बतलाने वाला होने से इसे वृहत्कल्प कहा जाता है। इसमें आहार, उपकरण क्रियाक्लेश, गृहस्थों के यहाँ जाना, दीक्षा, प्रायश्चित्त, परिहार विशुद्धि चारित्र, दूसरे गच्छ में जाना, विहार, वाचना