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श्रीजैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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साधु बनने वाले, परमत का परिचय करने वाले, आलोचना सुनने के अधिकारी, इत्यादि विषयों का वर्णन है। दूसरे उद्देशे में दो या अधिक समान समाचारी वाले दोषी साधुओं की शुद्धि, सदोषी, रोगी, आदि की वैयावृत्य, अनवस्थितादि का पुनः संयमारोपण, अभ्याख्यान चढ़ाने वाले, गच्छ को त्याग कर फिर गच्छ में आने वाले, एक पाक्षिक साधु और माधुओं का परस्पर संभोग इत्यादि विषयक वर्णन है । तीसरे उद्देशे में गच्छाधिपति होने वाले साधु, पदवी धारक
आचार, थोड़े काल के दीक्षित की पदवी, युवा साधु को आचार्य, उपाध्याय आदि से अलग रहने का निषेध, गच्छ में रह कर तथा छोड़ कर अनाचार सेवन करने वाले को सामान्य साधु एवं पदवीधारी को पद देने बावत काल मर्यादा के साथ विधि निषेध, मृषावादी को पद देने का निषेध आदि का वर्णन है ।
चौथे उद्देशे में आचार्य आदि पदवी धारक का परिवार एवं ग्रामानुग्राम विचरते हुए उन का परिवार, आचार्य आदि की मृत्यु पर आचार्य आदि स्थापन कर रहना, न रहने पर दोष, युवाचार्यकी स्थापना, भोगावली कर्म उपशमाने, बड़ी दीक्षा देना, ज्ञानादि के निमित अन्य गच्छ में जाना, स्थविर की आज्ञा बिना विचरने का निषेध, गुरु को कैसे रहना, दो साधुओं के समान होकर रहने का निषेध, आदि बातों का वर्णन है । पांचवे उद्देशे में साध्वी का आचार, सूत्र भूलने पर भी स्थविर को पद की योग्यता, माधु साध्वी के १२ सम्भोग, प्रायश्चित्त