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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाता देने के योग्य प्राचार्य प्रादि एवं साधु-पाधी के परस्पर वैयावृत्य आदि बातों का वर्णन है । छठे उद्देशे में सम्बन्धियों के यहाँ जाने की विधि, आचार्य उपाध्याय के अतिशय, पठिन अपठित साधु सम्बन्धी, खुले एवं ढके स्थानक में रहने की विधि, मथुन की इच्छा का प्रायश्चित्त, अन्य गच्छ से आये हुए माधु साी इत्यादि विषयक वर्णन है ।
सातवें उद्देशे में मंभोगी साधु माधी का पारम्परिक आचार, किस अवस्था में किस माधु को प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष में विसंभोगी करना, माधु का माध्वी को दीक्षा देना, साधु साध्वी की आचार भिन्नता, रक्तादि के अस्वाध्याय, साधु साध्वी को पदवी देने का काल, एकाएक साधु साध्वी की मृत्यु होने पर साधर्मिक माधुयों का कर्तव्य, साधु के रहने के स्थान को बेचने या भाड़े देने पर शय्यातर सम्बन्धी विवेक, राजा का परिवर्तन होने पर नवीन राज्याधिकारियों से आज्ञा मांगना आदि बातों का वर्णन है ।
आठवें उद्देशे में चौमास के लिए शय्या, पाट, पाटलादि मांगने की विधि, स्थविर की उपाधि, प्रतिहारी पाट पाटले लेने की विधि, भूले उपकरण ग्रहण करने एवं अन्य के लिए उपकरण मांगने की विधि का वर्णन है । नव- उद्देशे में शय्यातर के पाहुँने आदि का आहारादि ग्रहण तथा साधु की प्रतिमाओं की विधि का वर्णन है । दसवें उद्देशे में यवमध्य एवं वनमध्य प्रतिमाओं की विधि, पांच व्यवहार, विविध चौमङ्गिय, बालक को दीक्षा देने की विधि, दीक्षा लेने के