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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
(३) माया प्रत्यया। (४) अप्रत्याख्यानिकी।
(५) मिथ्यादर्शन प्रत्यया । (१) प्रारम्भिकी-छः काया रूप जीव तथा अजीव (जीव
रहिन शरीर, आटे वगैरह के बनाये हुए जीव की आकृति के पदार्थ या वस्त्रादि) के प्रारम्भ अर्थात् हिंसा से लगने
वाली क्रिया प्रारम्भिकी क्रिया कहलाती है। (२) पाग्ग्रिहिकी:-मूर्छा अर्थात् ममता को परिग्रह कहते हैं ।
जीव और अजीव में मृy ममत्व भाव से लगने वाली
क्रिया पाग्ग्रिहिकी है। (३) माया प्रत्यया-छल कपट को माया कहते हैं। माया द्वारा
दमरों को ठगने के व्यापार से लगने वाली क्रिया मायाप्रत्यया है। जैसे अपने अशुभ भाव छिपा कर शुभ भाव
प्रगट करना, झूठ लेख लिखना आदि । (४) अप्रत्याग्व्यानिकी क्रिया-अप्रत्याख्यान अर्थान् थोड़ा सा
भी विरति परिणाम न होने रूप क्रिया अप्रत्याख्यानिकी किया है।
अथवाःअव्रत से जो कर्म बन्ध होता है वह अप्रन्याग्न्यान क्रिया है। (५) मिथ्यादर्शन प्रन्यया-मिथ्यादर्शन अर्थान् तच्च में अश्रद्धान
या विपरीत श्रद्धान से लगने वाली क्रिया मिथ्यादर्शन प्रत्यया क्रिया है।
( ठाणांग २ सूत्र ६०) (ठाणांग ५ सूत्र ४१६) ( पन्नवणा पद २२)