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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह २६४-क्रिया के पांच प्रकार:--
(१) दृष्टिजा (दिडिया )। (२) पृष्टिजा या स्पर्शजा (पुट्टिया )। (३) प्रातीन्यिकी ( पाडुच्चिया )। (४) मामन्तोपनिपातिकी ( सामन्तोवणिया )।
(५) स्वाहस्तिकी ( साहन्थिया )। (१) दृष्टिजा ( दिट्ठिया )-अश्वादि जीव और चित्रकर्म आदि
अजीव पदार्थों को देखने के लिये गमन रूप क्रिया दृष्टिजा (दिडिया) क्रिया है।
दर्शन, या देखी हुई वस्तु के निमित्त से लगने वाली क्रिया भी दृष्टिजा क्रिया है।
अथवा:-- दर्शन से जो कर्म उदय में आता है वह दृष्टिजा क्रिया है। (२) पृष्टिजा या स्पर्शजा ( पुडिया )-राग द्वेप के वश हो
कर जीव या अजीव विषयक प्रश्न से या उनके स्पर्श से
लगने वाली क्रिया पृष्टिजा या स्पर्शजा क्रिया है। (३) प्रातीत्यिकी ( पाडुचिया)-जीव और अजीव रूप बाह्य
वस्तु के आश्रय से जो राग द्वेष की उत्पत्ति होती है । तजनित कर्म बन्ध को प्रातीत्यिकी (पाडुचिया ) क्रिया
कहते हैं। (४) सामन्तोपनिपातिकी-(सामन्तोवणिया) चारों तरफ से आकर
इकट्ठे हुए लोग ज्यों ज्यों किसी प्राणी, घोड़े, गोधे (सांड) आदि प्राणियों की ओर अजीव-रथ आदि की प्रशंसा सुन