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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला लेते हैं या वापिस गच्छ में आ जाते हैं । यह चारित्र छेदोपस्थापनिक चारित्र वालों के ही होता है दूसरों के नहीं।
निविश्यमानक और निविष्टकायिक के भेद से परिहार विशुद्धि चारित्र दो प्रकार का है।
तप करने वाले पारिहारिक साधु निर्विश्यमानक कहलाते हैं । उनका चारित्र निर्विश्यमानक परिहार विशुद्धि चारित्र कहलाता है।
तप करके वैयावृत्य करने वाले अनुपारिहारिक साधु तथा तप करने के बाद गुरु पद रहा हुआ साधु निर्विष्टकायिक कहलाता है । इनका चारित्र निर्विष्टकायिक परिहार
विशुद्धि चारित्र कहलाता है। (४) सूक्ष्म सम्पराय चारित्रः-सम्पराय का अर्थ कषाय होता
है। जिम चारित्र में सूक्ष्म सम्पराय अर्थात् संज्वलन लोभ का मूक्ष्म अंश रहता है। उसे सूक्ष्म सम्पराय चारित्र
विशुद्धधमान और संक्लिश्यमान के भेद से सूक्ष्म सम्पराय चारित्र के दो भेद हैं।
क्षपक श्रेणी एवं उपशम श्रेणी पर चढ़ने वाले साधु के परिणाम उत्तरोत्तर शुद्ध रहने से उनका सूक्ष्म सम्पराय चारित्र विशुद्धयमान कहलाता है ।
उपशम श्रेणी से गिरते हुए साधु के परिणाम संक्लेश युक्त होते हैं इसलिये उनका सूक्ष्मसम्पराय । चारित्र संक्लिश्यमान कहलाता है।