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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह गुरु रूप में रहता है जिसके पास पारिहारिक एवं अनुपारिहारिक साधु आलोचना, वन्दना, प्रत्याख्यान आदि करते हैं । पारिहारिक साधु ग्रीष्म ऋतु में जघन्य एक उपवास,मध्यम बेला (दो उपवास) और उत्कृष्ट तेला (तीन उपवास) तप करते हैं । शिशिर काल में जघन्य बेला मध्यम तेला और उत्कृष्ट (चार उपवास ) चौला तप करते हैं । वर्षा काल में जघन्य तेला, मध्यम चौला और उत्कृष्ट पचौला तप करते हैं। शेष चार आनुपारिहारिक एवं कल्पस्थित (गुरु रूप ) पाँच साधु प्रायः नित्य भोजन करते है । ये उपवास आदि नहीं करते। आयंबिल के सिवा ये
और भोजन नहीं करते अर्थात् सदा आयंबिल ही करते हैं । इस प्रकार पारिहारिक साधु छः मास तक तप करते हैं । छः मास तक तप कर लेने के बाद वे अनुपारिहारिक अर्थात् वैयावृत्त्य करने वाले हो जाते है और वैयावृत्त्य करने वाले (आनुपारिहारिक) साधु पारिहारिक बन जाते हैं अर्थात् तप करने लग जाते हैं। यह क्रम भी छः मास तक पूर्ववत् चलता है। इस प्रकार आठ साधुओं के तप कर लेने पर उनमें से एक गुरु पद पर स्थापित किया जाता है और शेष सात वैयावृत्त्य करते हैं और गुरु पद पर रहा हुआ साधु तप करना शुरू करता है । यह भी छः मास तक तप करता है। इस प्रकार अठारह मास में यह परिहार तप का कल्प पूर्ण होता है । परिहार तप पूर्ण होने पर वे साधु या तो इसी कम्प की पुनः प्रारम्भ करते हैं या जिन कल्प धारण कर