________________
३१८
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला छेदोपस्थापनिक चारित्र के दो भेद हैं(१) निरतिचार छेदोपस्थापनिक । (२) सातिचार छेदोपस्थापनिक । (१) निरतिचार छेदोपस्थापनिकः इत्वर सामायिक वाले
शिष्य के एवं एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ में जाने वाले साधुओं के जो व्रतों का आरोपण होता है। वह
निरतिचार छेदोपस्थापनिक चारित्र है। (२) मातिचार छेदोपस्थापनिक:-मूल गुणों का घात करने
वाले साधु के जो : व्रतों का आरोपण होता है वह
सातिचार छेदोपस्थापनिक चारित्र है। (३) परिहार विशुद्धि चारित्रः-जिस चारित्र में परिहार तप
विशेष से कर्म निर्जरा रूप शुद्धि होती है। उसे परिहार विशुद्धि चारित्र कहते हैं।
अथवाःजिस चारित्र में अनेषणीयादि का परित्याग विशेष रूप से शुद्ध होता है । वह परिहार विशुद्धि चारित्र है।
स्वयं तीर्थंकर भगवान् के समीप, या तीर्थंकर भगवान् के समीप रह कर पहले जिसने परिहार विशुद्धि चारित्र अङ्गीकार किया है उसके पास यह चारित्र अङ्गीकार किया जाता है । नव साधुओं का गण परिहार तप अङ्गीकार करता है । इन में से चार तप करते हैं जो पारिहारिक कहलाते हैं । चार वैयावृत्य करते हैं जो अनुपारिहारिक कहलाते हैं और एक कल्पस्थित अर्थात्