SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 383
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२१ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह (५) यथाख्यात चारित्र--सर्वथा कपाय का उदय न होने से अतिचार हित पारमार्थिक रूप से प्रसिद्ध चारित्र यथाख्यान चारित्र कहलाता है। अथवा अकषायी माधु का निरतिचार यथार्थ चारित्र यथाख्यात चारित्र कहलाता है । छबस्थ और केवली के भेद से यथाख्यात चारित्र के दो भेद हैं । अथवा उपशान्त मोह और क्षीण मोह या प्रतिपाती और अप्रतिपाती के भेद से इसके दो भेद हैं। मयोगी केवली और अयोगी केवली के भेद से केवली यथाख्यात चारित्र के दो भेद हैं। (ठाणांग ५ उद्देशा २ सूत्र ४२८) (अनुयोगद्वार पृष्ठ २२० आगमोदय ममिति ) __ (अभिधान गजेन्द्र कोप भाग ३ तथा ७) सामाइश्र और चारित्त शब्द) (विशेषावश्यक भाष्य गाथा १२६०-१२७६ ) ३१६-महाव्रत की व्याख्या और उसके भेदः देशविरति श्रावक की अपेक्षा महान् गुणवान् साधु मुनिराज के सर्वविरति रूप व्रतों को महावत कहते हैं। अथवा:श्रावक के अणुव्रत की अपेक्षा साधु के व्रत बड़े हैं। इम लिये ये महाव्रत कहलाते हैं । महाव्रत पाँच हैं: (१) प्राणातिपात विरमण महावत । (२) मृषावाद विरमण महाव्रत । (३) अदत्तादान विरमण महाव्रत ।
SR No.010508
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1940
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy