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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह २२५ के माथ भी यह सोच कर मैत्री भाव बनाये रखना चाहिये कि यदि घर के लोग बुरे भी होते हैं तो भी वे हमारे ही रहते हैं और हम निरन्तर सद्भावना के माथ उनके हितसाधन में तत्पर रहते हैं । विश्व के प्राणी भी हमारे घर वाले रह चुके हैं। और भविष्य में रह सकते हैं। फिर उनके साथ भी हमारा वैमा ही व्यवहार होना चाहिए। न जाने हम इस मंमार में भ्रमण करते हुऐ कितनी बार विश्व के प्राणियों से उपकृत हो चुके हैं । फिर उन उपकारियों के माथ मित्र भाव रखना ही हमारा फर्ज है । यदि वर्तमान में वे हानि पहुँचाने हों तो भी हमें तो उपकारों का म्मरण कर अपना कर्तव्य पालन करना ही चाहिये । अपने विषले डंक से काटते हुऐ चंडकौशिक का उद्धार करने वाले भगवान् श्री महावीर स्वामी की जगत् के उद्धार की भावना का मदा ध्यान रखना चाहिये । यदि हमारी ओर से किमी का अहित हो जाय या प्रतिकूल व्यवहार हो, तो हमें उससे तत्काल शुद्ध भाव से क्षमा याचना करनी चाहिये । इससे पारस्परिक भेद भाव नष्ट हो जाता है। इससे सामने वाला हमारे अहित का प्रयत्न नहीं करता है और हमारा चित्त भी शुद्ध हो जाता है। एवं उमकी ओर से हानि पहुँचने की आशङ्का मिट जाती है।
- यह मैत्री भाव मनुष्य का स्वभाविक गुण है । वर करना पशुता है। मैत्री भाव का पूर्ण विकास होने पर समीपस्थ प्राणी भी पारस्परिक वैरभाव भूल जाते हैं। तो