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श्री सठिया जैन ग्रन्थमाला शत्रुओं का मित्र होना तो माधारण सी बात है। मंत्री भाव के विकास के लिए चित्त को निर्मल तथा विशद बनाना
आवश्यक है । घर के लोगों से मैत्री भाव का प्रारम्भ होता है। और बढ़ते२ सारे संसार में इस भाव का प्रसार होजाता है। तब विश्व भर में आत्मा का कोई शत्रु नहीं रहता। इस कोटि पर पहुँच कर आत्मा पूर्ण शान्ति का अनुभव करता है। अत एव मदा इस भावना में दत्तचित्त रह कर वैर भाव को भुलाना चाहिए । और मंत्री भाव की वृद्धि करना चाहिये। आत्मा की तरह जगत् के सामारिक दुःखद्वन्द्वों से मुक्ति हो, एवं जो हम अपने लिए चाहें । वही विश्व के समस्त प्राणियों के लिये चाहें । एवं मंमार के सभी प्राणी मित्र रूप में दिखाई देने लगे। इस प्रकार की भावना ही
मैत्री भावना है। (२) प्रमोद भावनाः-अधिक गुण सम्पन्न महापुरुषों को और
उनके मान पूजा मत्कार आदि को देखकर हर्षित होना प्रमोद भावना है । चिरकाल के अशुभ संस्कारों से यह मन ईर्ष्यालु हो गया है । इस प्रकार दूसरे की बढ़ती को वह महन नहीं कर सकता । परन्तु ईर्षा महादुर्गुण है । इस से जीव दूसरों को गिरते देख कर प्रसन्न होना चाहता है। किन्तु उसके चाहने से किसी का पतन संभव नहीं। बिल्ली के चाहने से सींका (छींका) नहीं टूटता । परन्तु यह मलीन भावना अपने स्वामी को मलीन कर गिरा देती है । एवं सद्गुणोंको हर लेती है। ईर्ष्यालु आत्मा सभी को मय बातों में अपने से नीचे