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श्री जैन सिद्धान्त बोल मंग्रह
२२७ देखना चाहता है। परन्तु यह संभव नहीं है। इसके फलस्वरूप वह सदा जलता रहता है एवं अपने स्वास्थ्य और गुणों का नाश करता है। यदि हम यह चाहते हैं कि हमारी सम्पत्ति में सभी हर्षित हों, हमारी उन्नति से सभी प्रसन्न हों, हमारे गुणों से सभी को प्रेम हो। यह इच्छा तभी पूर्ण हो सकती है, जब हम भी दूसरों के प्रति ईर्षा छोड़ कर उनके गुणों से प्रेम करेंगे। उनकी उन्नति से प्रसन्न होंगे । इमसे यह लाभ होगा कि हमारे प्रति भी कोई ईर्षा न करेगा । एवं जिन अच्छे गुणों से हम प्रसन्न होंगे, वे गुण हमें भी प्राप्त होंगे। इस लिए सदा गुणवान पुरुष-जैसे अरिहन्त भगवान्, साधु महाराज आदि के गुणानुवाद करना,श्रावक वर्ग में दानी, परोपकारी आदि का गुणानुवाद करना, उनके गुणों पर प्रसन्नता प्रगट करना, उनकी उन्नति से हर्षित होना, उनकी प्रशंसा सुन कर फूलना आदि प्रमोद
भावना है। (३) करुणा भावनाः-शारीरिक मानसिक दुःखों से दःखित
प्राणियों के दुःख को दूर करने की इच्छा रखना करुणा भावना है । दीन, अपङ्ग, रोगी, निर्बल लोगों की सेवा करना, वृद्ध, विधवा और अनाथ बालकों को महायता देना, अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि दुर्भिक्ष के समय अन्न जल विना दुःख पाने वालों के लिए खाने पीने की व्यवस्था करना, बेघरबार लोगों को शरण देना, महामारी आदि के समय लोगों को औषधि पहुँचाना, स्वजनों से