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________________ २२८ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला वियुक्त लोगों को उनके स्वजनों से मिला देना, भयभीन प्राणियों के भय को दूर करना,वृद्ध और रोगी पशुओं की सेवा करना । यथाशक्ति प्राणियों के दुःख दूर करना, समर्थ मानवों का कर्तव्य है । धन तथा शारीरिक और मानसिक बल का होना तभी सार्थक है। जब कि वह उपरोक्त दुःखी जीवों के उद्धार के लिए लगा दिए जावें । संसार में जो सुख ऐश्वर्य दिग्वाई देता है। वह मभी इस करणाजनित पुण्य के फलस्वरूप है। भविष्य में इनकी प्राप्ति पुण्य बल पर ही होगी। जो लोग पूर्व पुण्य के बल से तप बल, धन बल एवं मनोबल पाकर उसका उपयोग दूसरों के दुःख दूर करने में नहीं करते, वे भविष्य में आने वाले सुखों को अपने ही हाथों रोकते हैं। करुणा-दया भाव, जैन दर्शन में सम्यग दर्शन का लक्षण माना गया है । अन्य धर्मों में भी इसे धर्म रूप वृक्ष का मूल बताया गया है । दया के विना धर्माराधन असम्भव है । इस लिए धर्मार्थी एवं सुखार्थी समर्थ आत्माओं को यथा शक्ति दुःखी प्राणियों के दुःखों को दूर करना चाहिए । असमर्थ जनों को भी दुःख दूर करने की भावना अवश्य रखनी चाहिए। अवसर आने पर उसे क्रियात्मक रूप भी देना चाहिए। इस प्रकार धनहीन, दुःखी, भयभीत्त आत्माओं के दुःख को दूर करने की बुद्धि करुणा भावना है। (४) माध्यस्थ भावनाः-मनोज्ञ अमनोज्ञ पदार्थ एवं इष्ट अनिष्ट मानवों के मंयोग वियोग में राग-द्वेष न करना
SR No.010508
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1940
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size12 MB
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