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श्री जैन मिद्धान्त बोल संग्रह
२२६ माध्यस्थ भावना है। यह भावना आत्मा को पूर्ण शान्ति देने वाली है । मध्यस्थ भाव से भावित आत्मा पर भले बुरे का कोई भी असर ठीक उसी प्रकार नहीं होता। जिस प्रकार दर्पण पर प्रतिविम्बित पदार्थों का असर नहीं होता। अर्थात् जैसे दर्पण पहाड़ का प्रतिबिम्ब ग्रहण करके भी पहाड़ के भार से नहीं दबता या ममुद्र का प्रतिबिम्ब ग्रहण कर भीग नहीं जाता। वैसे ही राग द्वेष त्याग कर माध्यस्थ भावना का आलम्बन लेने वाला आत्मा अच्छे बुरे पदार्थ एवं मंयोगों को कर्म का खेल ममझ कर ममभाव से उनका सामना करता है। किन्तु उनसे आत्म भाव को चञ्चल नहीं होने देता । मंमार के मभी पदार्थ विनश्वर हैं । मंयोग अस्थायी है । मनुष्य भी भले के बुरे और बुरे के भले होते रहते हैं। फिर राग द्वेष के पात्र हैं ही क्या?
दूसरी बात यह है कि इष्ट,अनिष्ट पदार्थों की प्राप्ति, मंयोग वियोग आदि शुभाशुभ कर्म जनित हैं, वे तो नियत काल तक हो कर ही रहेंगे। राग करने से कोई पदार्थ हमेशा के लिए हमारे माथ न रह सकेगा। न द्वेष करने से ही किसी पदार्थ का हमारे से वियोग हो जायेगा । यदि प्राणी अशुभ को नहीं चाहते तो उन्हें अशुभ कर्म नहीं करने थे । अशुभ कर्म करने के बाद अशुभ फल को रोकना प्राणियों की शक्ति के बाहर है। जबान पर मिर्च रख कर उसके तिक्तपन से मुक्ति चाहने की तरह यह अज्ञानता है । शुभाशुभ कर्म जनित इष्ट अनिष्ट पदार्थ एवं संयोगों में राग द्वेष का त्याग करना (उपेक्षा भाव रखना) ही माध्यस्थ्य भावना है।