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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
साधु महात्मा: - ज्ञान दर्शन चारित्र रूप भावों की उत्कृष्टता की अपेक्षा लोकोत्तम हैं— पशमिक, क्षायोपशमिक, और क्षायिक इन भावों की अपेक्षा केवली प्ररूपित धर्म भी लोकोत्तम है ।
सांसारिक दुःखों से त्राण पाने के लिए सभी आत्मा उक्त चारों का आश्रय लेते हैं । इसलिए वे शरण रूप हैं । बौद्ध साहित्य में बुद्ध धर्म और संघ शरण रूप माने गये हैं । यथा:
"अरिहंते सरणं पवज्जामि, सिद्धे सरणं पवजामि । साहू सरणं पवज्जामि, केवलिपण्णत्तं धम्मं सरणं पवजामि | इस पाठ जैसा ही बौद्ध साहित्य में भी पाठ मिलता है।
यथा:
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बुद्धं सरणं गच्छामि, धम्मं सरणं गच्छामि, संघ सरणं गच्छामि ।
( हरिभद्रीयावश्यक प्रतिक्रमणाध्ययन पृष्ठ ५६६ )
१२६ (ख.) अरिहन्त भगवान् के चार मूलातिशय
(१) पायापगमातिशय ।
(२) ज्ञानातिशय ।
(३) पूजातिशय । (४) वागतिशय ।
अपायापगमातिशय- अपाय अर्थात् अठारह दोष एवं विघ्न बाधाओं का सर्वथा नाश हो जाना अपायापगमातिशय है ।