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श्री जैन सिद्धान्त बोल माह नोट:-१८ दोषों का वर्णन अठारहवें बोल में दिया जायगा। ज्ञानातिशय-ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय से उत्पन्न त्रिकाल एवं
त्रिलोक के समस्त द्रव्य एवं पर्यायों को हस्तामलकवत् जानना, संपूर्ण, अव्यावाध, अप्रतिपानी ज्ञान का धारण
करना ज्ञानानिशय है। पूजातिशय--अरिहन्त तीन लोक की ममस्त आत्माओं के लिए
पूज्य हैं, तथा इन्द्रकृत अष्ट महा प्रानिहार्यादि रूप पूजा से पूजित हैं। त्रिलोक पूज्यता एवं इन्द्रादिकृत पूजा ही पूजातिशय है।
भगवान् के चौंतीम अतिशय, अपायापगमातिशय एवं पूजातिशय रूप ही हैं। वागतिशय--अरिहन्त भगवान् गगढप से परे होते हैं, एवं पूर्ण
ज्ञान के धारक होते हैं। इसलिए उनके वचन मत्य एवं परस्पर बाधा रहित होते हैं। वाणी की यह विशेषता हो वचनातिशय है। भगवान् की वाणी के पंतीम अतिशय बागतिशय रूप ही हैं।
(म्याद्वादमञ्जरी कारिका १) १३०-मंसारी के चार प्रकार:
(१) प्राण (२) भूत (३) जीव (४) मत्त्व प्राण:--विकलेन्द्रिय अर्थान् द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुगिन्द्रिय
जीवों को प्राण कहते हैं।