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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला दिया। दोनों लोक बिगाड़ने वाला, पायमय, स्व-पर का अपकार करने वाला यह क्रोध प्राणियों का वास्तव में महान् शत्रु है । इस क्रोध को शान्त कग्ने का एक उपाय,
क्षमा है । मानः-कुल, जाति, बल, रूप, तप, विद्या, लाभ और ऐश्वर्य
का मान करना नीच गोत्र के बन्ध का कारण है । मान विवेक को भगा देता है और आत्मा को शील, मदाचार से गिरा देता है । वह विनय का नाश कर देता है और विनय के साथ ज्ञान का भी। फिर आश्चर्य तो यह है कि मान से जीव ऊँचा बनना चाहता है पर कार्य नीचे होने का करता है। इस लिए उन्नति के इच्छुक आत्मा को विनय का आश्रय लेना चाहिये और मान का परिहार करना चाहिये।
माया:--माया अविद्या की जननी है और अकीर्ति का घर है ।
माया पूर्वक सेवित तप संयमादि अनुष्ठान नकली सिक्के की तरह असार है और स्वप्न तथा इन्द्रजाल की माया के समान निष्फल है । माया शल्य है वह आत्मा को व्रतधारी नहीं बनने देती क्योंकि व्रती निःशल्य होता है माया इस लोक में तो अपयश देती है और परलोक में दुर्गति । ऋजुता अर्थात् सरलता धारण करने से माया कषाय नष्ट हो जाती है । इस लिये माया का त्याग कर सरलता को अपनाना चाहिये ।