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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
२७५ लोभ कषायः-लोभ कषाय सब पापों का आश्रय है । इसके
पोषण के लिए जीव माया का भी आश्रय लेता है। सभी जीवों में जीने की इच्छा प्रबल होती है और मृत्यु से डरने हैं। किन्तु लोभ इसके विपरीत जीवों को ऐसे कार्यों में प्रवृत्त करता है । जिन में मदा मृत्यु का खतरा बना रहता है। यदि जीव वहीं मर गया तो लोभ के परिणाम स्वरुप उसे दुर्गति में दुःख भोगने पड़ते हैं। ऐसी अवस्था में उसका यहां का साग परिश्रम व्यर्थ हो जाता है । यदि उससे लाभ भी हो गया तो उसके भागी और ही होते हैं। अधिक क्या कहा जाय, लोभी आत्मा को स्वामी, गुरु, भाई, वृद्ध, स्त्री, बालक, क्षीण, दुर्बल अनाथ आदि की हत्या करने में भी हिचकिचाहट नहीं होती । संक्षेप में यों कह सकने हैं, कि शास्त्रकारों ने नरक गति के कारण रूप जो दोष बताये हैं। वे सभी दोष लोभ से प्रगट होते हैं। लोभ की औषधि सन्तोष है। इस लिए इच्छा का मंयमन कर संतो को
धारण करना चाहिये। (४) निद्रा प्रमादः--जिम में चेतना अस्पष्ट भाव को प्राप्त हो ऐमी
सोने की क्रिया निद्रा है। अधिक निद्रालु जीव न ज्ञान का उपार्जन कर सकता है और न धन का ही । ज्ञान और धन दोनों के न होने से वह दोनों लोक में दुःख का भागी होता है। निद्रा में संयम न रखने से यह प्रमाद सदा बढ़ता रहता है जिससे अन्य कर्तव्य कार्यों में बाधा पड़ती है। कहा भी है: